
हम अपनी क्षमता का बहुत कम अंश उपयोग करते हैं। जितना काम करना चाहिए, हम उतना काम नहीं करते हैं। जितना सोचना चाहिए हम उतना नहीं सोचते हैं। परिणाम होता है कि हम उन लोगों की तुलना में पिछड़ जाते हैं जो हमसे ज्यादा मेहनत करते हैं।
जब हम अपनी क्षमताओं का दोहन नहीं करते हैं तब हमारी मानसिक और शारीरिक क्षमताएं प्रभावित हो जाती हैं। उनमें क्रिया शीलता कम हो जाती है। हम जो हो सकते हैं, उसकी तुलना में सिर्फ थोड़े हिस्से तक ही पहुंच पाते हैं।
आकर्षण का सिद्धांत न्यूटन से पहले भी था, पर किसी ने सोचा नहीं। किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। किसी ने दैनिक जीवन से इसे जोड़ कर उसके प्रभाव का स्थाई नियम नहीं बनाया। न्यूटन ने औरों से हटकर ध्यान लगा कर गहराई से सोचा। इसे महसूस किया। इसका बार बार प्रयोग किया और अन्त में गुरुत्वाकर्षण की खोज का मालिक बन गया। न्यूटन आज विज्ञान की दुनिया में यशस्वी हैं।
बहुत सोचने पर लगता है कि हम आधे जागे हुए हैं। हमारे पास ऐसी बहुत-सी क्षमताएँ हैं, शक्तियाँ हैं, जिनका उपयोग करने से हम अनजान हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि यही अनजानापन हमें बहुत-सी खोजों से दूर रखे हुए है।
हमारा दिमाग निश्चित तौर पर जटिल से जटिल और उन्नत कार्य करने में सक्षम है। यह एक मिथक है कि लोग अपने दिमाग का उपयोग कम करते हैं। यह सही नहीं है कि केवल आइंस्टीन द्वारा ही 10 प्रतिशत अबतक का सबसे अधिक उपयोग हुआ है।
सच्चाई यह है कि हमारा पूरा दिमाग़ लगातार उपयोग में रहता है। यह बहुत ज़्यादा ऊर्जा की खपत करता है। दिमाग़ हमारे शरीर के वज़न का सिर्फ़ दो प्रतिशत होता है। यह हमारी 20 प्रतिशत ऊर्जा खा जाता है। जब हम सोते हैं, तब भी हमारा पूरा दिमाग सक्रिय रहता है।
चाहें जितना दिमाग़ लगाएं, हम नहीं बता सकते कि चूहा और चिम्पांजी कैलकुलस कर सकते हैं या नहीं?
दिमाग़ के दोहन से हम रातों-रात जीनियस नहीं बन सकते हैं। हम कड़ी मेहनत यानि लगातार दिमाग का उपयोग करके अपनी सोचने की क्षमता ज़रूर बढ़ा सकते हैं। यह सोचने की क्षमता धीरे धीरे एक दिमागी शक्ति बन जाती है। इस दिमागी ताकत का उपयोग कर हम औरों से अलग बन जाते हैं।
हम कुछ उदाहरण लिख रहे हैं। डॉ सुभाष जोशी बिजली विभाग में एक सुप्रिटेंडिंग इंजीनियर थे। एक दिन उच्च शिक्षा की बात उनके दिमाग में आई। उन्होंने स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति ले ली। आईआईटी रुड़की से पोस्ट ग्रेजुएशन किए और फिर पीएचडी। इसके बाद वह समाज में पिछड़ों और मुख्य धारा से दूर सुविधा विहीन लोगों की शिक्षा में लग गए। आपने ज्ञानविज्ञान सरिता के माध्यम से बहुत सारे सुविधा विहीन बच्चों को इंजिनियर बना दिया।
एक दूसरा उदाहरण डॉ जगदीश व्यास का है। सरकारी डाक्टर के पद से रिटायर हुए। आज 84 की उम्र में हैं। फिर भी गीता पर ऑनलाइन आध्यात्मिक आख्यान देते हैं। वह ओडिशा के जनजातीय क्षेत्रों में जाकर वहां के निवासियों की निःशुल्क चिकित्सकीय सेवा करते हैं।
तीसरा उदाहरण है डॉ टी एन एस माथुर का। कई नामी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर और डायरेक्टर रहे। सेवानिवृत्ति के बाद संगीत में रुचि जगी। आज 80 की उम्र पार करने के बाद भी अच्छा गाते हैं। आप हारमोनियम भी अच्छा बजाते हैं।
एक उदाहरण श्री आर बी शर्मा का है। आप संस्कृत के अध्यापक रहे। सेवा निवृत्ति के बाद अच्छी कविताएं लिखते हैं। अच्छे भजन भी लिखते हैं। अपने लिखे भजनों को मीठी आवाज में अच्छी तरह से हारमोनियम पर गाते भी हैं।
एक और उदाहरण मैं अपना देना जरूरी समझता हूं। मुझे ब्लॉग लिखना नहीं आता था। हमने अपने इंजीनियर भतीजे मनीष के साथ बैठकर सीखा। इसके लिए जरूरी ऑनलाइन टूल्स को समझा। प्रेक्टिकल देखकर सीखा। यह पहला ब्लॉग हमारी वेबसाइट पर आपके सामने है, जिसे आप पढ़ रहे हैं।
संक्षेप में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अपनी सोई हुई क्षमताओं को जानना ज़रूरी है। क्षमताओं को जगाना ज़रूरी है। क्षमताओं का उपयोग करना ज़रूरी है। जब हम इतना कर लेते हैं तब औरों से अलग बन जाते हैं।
भीड़ से हटने पर ही पहचान बनती है!