अच्छा टीम लीडर अपनी बात साफगोई से रखता है!
व्यक्तित्व में निखार के लिए जरूरी है कि जो बोला जाए, वह ठीक से समझा भी जाए। उसका अर्थ सुनने वाले की समझ में तुरंत आ जाए। किस मतलब से बोला गया है, वह भी समझ में आ जाए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि कहा कुछ जाए, सुनने वाले के पास पहुंचते-पहुंचते उसका भाव ही बदल जाए, और उसका मतलब कुछ और निकले।
अच्छा बोलने वाले को एक अच्छा सुनने वाला भी होना होता है। अच्छी तरह सुनने से उसे कई जानकारियां मिल जाती हैं और फिर उसे अपनी बात कहने अथवा अपनी प्रतिक्रिया देने में आसानी हो जाती है। अच्छा सुनने से व्यक्ति बोलते समय, सुनने वालों से वन-टू-वन कनेक्ट हो जाता है।
जब हम सुनने वाले की बात को अपनी बात कहते समय उसमें जगह देते हैं तब उसे विश्वास हो जाता है कि उसकी बात सही तरीके से सही जगह पहुंच गई है, वह संतुष्ट हो जाता है, और बहुत-सी समस्याएं उभरने से पहले ही ख़त्म हो जाती हैं।
अपनी बात कहते समय सकारात्मक विचारों और सकारात्मक शब्दों का ही प्रयोग अच्छा लीडर करता है। वह नकारात्मक शब्दों का प्रयोग नहीं करता है। नकारात्मक शब्द दूसरे के सम्मान को ठेस पहुंचाते हैं। एक तरह से नकारात्मक शब्द दूसरों की बातों को काटने का काम करते हैं।
ऐसी स्थिति से अच्छा टीम लीडर बचता है। इससे बचने का सीधा तरीका है कि सामने वाले की बात सुन ली जाए, अपनी सकारात्मक बात कह दी जाए, और बिना आर्गुमेंट आगे बढ़ लिया जाए। इससे सामने वाला न नेगलेक्ट महसूस करेगा और न ही अपमानित।
नकारात्मक प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर सधे हुए वक्ता की पहचान होती है। अच्छा जवाब वही दे पाता है जो बातें सुनते समय अपने लिए एक संक्षिप्त नोट बनाता रहता है।
सही जगह पर बातों का सटीक जवाब देना चाहिए। घर की बात का घर पर, और मीटिंग की बात का मीटिंग में जवाब देना चाहिए। लहजा भी स्थान के हिसाब से रखना चाहिए, मीटिंग में फॉर्मल रहना चाहिए तो घर पर इनफॉर्मल।
अच्छी तरह से बात रखने का सही तरीका है कि अपनी बात उतने ही शब्दों में रखी जाए जितने से सुनने वाले की समझ में आ जाए। आवाज साफ, मीठी, चेहरा शान्त और हंसमुख होना चाहिए।
पाइथागोरस एक गणितज्ञ था। उसका मानना था :
Be silent when others are speaking and speak when others are silent.
यानि जब दूसरे बोल रहे हों तब हमें चुप रहना चाहिए और जब दूसरे शान्त हों तब हमें अपनी बात रखनी चाहिए।
हमारा हावभाव बोलते समय हमारे शब्दों और विषय के अनुकूल होना चाहिए। हम अगर अपनी बातचीत से किसी को प्रभावित करना चाहते हैं तो सबसे पहले जरूरी है कि हम खुद आत्मविश्वास से भरे हुए हों।
दूसरी बात जरूरी यह है कि हमें अपनी बात से निकलने वाले संभावित नकारात्मक प्रश्नों के उत्तर पहले से तैयार रखने चाहिए। सकारात्मक बातों का जवाब तो याद आ जाता है, परंतु नकारात्मक बातों का सही उत्तर ढूंढने में परेशानी होती है और पूरी मीटिंग खराब हो जाती है। इसलिए निगेटिव की काट पहले से अच्छी तरह से तैयार रखनी चाहिए और वह भी पॉजिटिव तरीके से।
एक नकारात्मक बात का सही उत्तर सामने वाले का कद छोटा कर देता है।
जब हम अपनी बात रख रहे होते हैं तब उसे ऐसे रखना चाहिए जैसे हमने उस बात को जिया है, अभ्यास किया है, या ऐसी समस्या का सफलता से निबटारा पहले किया है। ऐसा होने पर लीडर को लोग क्षमतावान, सक्षम और विश्वस्त मानते हैं।
अपनी टीम का एक मूल्यवान सदस्य बनने के लिए जरूरी है कि अपने आस-पास के सभी लोगों के बारे में अच्छी समझ रखी जाए, उनका व्यक्तिगत डाटा रखा जाए, और अपने टीम के सदस्यों के लक्ष्यों को भी बेहतर ढंग से समझा जाए।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति ऐसे व्यक्ति को पसंद नहीं करता है जो दूसरों को बोलने नहीं देता है अथवा अपनी बात पूरी नहीं करने देता है या गाली-गलौज करता है।
एक सम्मानजनक व्यक्ति वह होता है जो विनम्र होता है, गंदी भाषा का प्रयोग नहीं करता है, और दूसरों के बोलते समय टोका-टोकी नहीं करता है।
अगर कभी ऐसी नौबत आए कि दूसरों से अपनी बात मनवानी है तो हमें अपने निर्णय को एक तरफ रख कर धैर्यपूर्वक दूसरे लोगों को पहले मौका देकर उन्हें अपनी बात पूरी करने देना चाहिए, उनकी बातों को महत्व देना चाहिए, और अन्त में अपना निर्णय देना चाहिए। लोग निश्चित रूप से तब बात मान जाएंगे।
यह सच्चाई है कि जब हम दूसरों के प्रति विचारशील होते हैं तब हमारे रिश्ते उनसे प्रगाढ़ बनते हैं, एक व्यक्ति के रूप में हमारी छवि बेहतर बनती है, और दूसरों से अपनी बात मनवाने की स्थितियां भी बनती हैं।
जब कोई अपनी बात रख रहा हो तब उसकी बातों के बीच में उसकी सराहना करते रहना चाहिए जैसे ताली बजाना, मेज थपथपाना और खुशी जताना आदि।
सराहना करने से आत्मविश्वास बढ़ता है, उसके कौशल में सुधार होता है, और वह बेहतर इंसान बनता है। हमारी प्रतिक्रिया हमेशा रचनात्मक और ईमानदार होनी चाहिए। हमारी भाषा मिलनसार और दोस्ताना होनी चाहिए, अथॉरिटेटिव नहीं।
किसी की भी बात सुनते समय हमें उसके प्रति विनम्र और सम्मानजनक रहना चाहिए। चाहें वह बॉस हो, साथी हो, या सहयोगी।
बोलते समय हमारी मुद्रा, चेहरे के भाव और सुनने वालों से आंखों के संपर्क जैसी हरकत बातचीत को प्रभावी बनाते हैं।
हमे अपनी बात रखते समय टू-द-प्वाइंट रहना चाहिए। विषय से हटकर अनावश्यक जानकारी नहीं डालनी चाहिए। हमें अपनी बॉडी लैंग्वेज पॉजिटिव रखनी चाहिए।
शब्दों के चयन पर सदा सावधान रहना चाहिए क्योंकि एक गलत तरीके से चुना गया शब्द जल्दी ही गलतफहमी का कारण बन जाता है।
जब ईमेल या अन्य लिखित माध्यम से किसी गरमागरम मुद्दे पर शामिल होना हो तो जवाब देने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। अगर संभव हो तो अपना जवाब लिख लेना चाहिए लेकिन उसे भेजने के लिए एक या दो दिन प्रतीक्षा करनी चाहिए।
एक चीनी कहावत याद रखनी चाहिए:
Never write a letter while you are angry!
यानि गुस्से में चिट्ठी (ई-मेल/टैक्स्ट मेसेज) नहीं लिखनी चाहिए।
कई मामलों में देखा गया है कि गुस्से में हमारे द्वारा लिखा गया पत्र शुरुआती भावनाओं के शांत हो जाने के बाद दोबारा पढ़ने पर अपनी भाषा को हमारे द्वारा इस तरह से सुधार दिया जाता है कि संघर्ष बढ़ने की संभावना कम हो जाती है या फिर ख़त्म हो जाती है।
सहकर्मियों और कर्मचारियों के साथ संवाद करना हमेशा चुनौतियों से भरा होता है। इसमें गलतफहमियाँ ज़्यादा होती हैं, जिन्हें सुलझाना ज़रूरी होता है।
दुर्भाग्य से, कॉर्पोरेट संदेश हमेशा वो नहीं होते हैं जो हम सुनना चाहते हैं, ख़ासकर मुश्किल समय में।
वैसे तो कहा गया है:
स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥
अर्थात्
किसी के स्वभाव को उपदेश देकर बदला नहीं जा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे पानी को कितना भी गर्म करिए, कुछ समय बाद वह फिर से ठंडा हो ही जाता है।
कॉरपोरेट की मीटिंग्स भी इसीलिए बार-बार की जाती हैं कि काम करने वालों की बातें और स्वभाव कुछ तो संस्थान के अनुकूल हो जाएं। काम करने वाले लोग एक कॉरपोरेट घराने से दूसरे और फिर वहां से तीसरे घरानों में आते-जाते रहते हैं।
सभी कॉरपोरेट घरानों के काम करने के तरीके अलग-अलग होते हैं।कहीं काम करने वालों के साथ सहानुभूति रखी जाती है तो कहीं उन घरानों के साथ जो काम देते हैं।
अच्छा टीम लीडर अपने साथियों के उत्साहवर्धन के लिए मीटिंग्स में काम करने के तरीकों को बताते समय सकारात्मक कथनों का इस्तेमाल करता है।
हमने अपने स्कूल के समय से ही देखा है कि सकारात्मक बातें हमेशा से सुधार के साधन के रूप में इस्तेमाल की जाती रही हैं।
उदाहरण के लिए: Don’t do like this से We may do like this अथवा Let’s do like this ज्यादा अच्छा है। पहला नकारात्मक और ऑथोरिटेटिव है तो दूसरा सकारात्मक और व्यावहारिक।
किसी बात की पुष्टि करने का मतलब होता है कि हम स्वयं को विश्वास दिलाते हैं कि जो कहा जा रहा है वह सच है, और सच रहेगा।
जब हम कहते हैं कि हम जो सोचते हैं वही होगा, तब इसका मतलब होता है कि वास्तविक जीवन में जो कुछ भी होता है उसे आकार देने में हमारे विचारों और भावनाओं की शक्ति काम कर रही है।
यह कुछ उसी तरह है कि हम जो ऊर्जा खर्च करते हैं, वही ऊर्जा ब्रह्मांड से हमारे पास वापस आती है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम अच्छे हैं, हम सबसे अच्छे हैं, फिर भी अगर कोई कमी रह गई है तो सुधार की संभावना कभी ख़त्म नहीं होती है। अपने में सुधार करते-करते ही हम पूर्ण बनते हैं, दूसरों के लिए आदर्श बनते हैं, उदाहरण बनते हैं, और अन्त में सबके लिए प्रेरक बनते हैं।
निष्कर्ष:
(1) बातचीत में टू-द-प्वाइंट रहना है।
(2) सुनना ज़्यादा और बोलना कम है।
(3) अपने पास संभावित नकारात्मक प्रश्नों के सकारात्मक उत्तर पहले से तैयार रखना है।