मौज-मस्ती-धमा-चौकड़ी का त्यौहार

मैं सत्यव्रत जी के घर पहुंचा। घर सजा-संवरा हुआ था। दही-बड़ा खाकर मजा आ गया। यहां से संग्रहणीय और पठनीय चारों वेदों को पाकर अनंत खुशी हुई।

त्रिपाठी जी के साथ सपरिवार गुलाब जामुन खाकर मजा आ गया। आजकल त्रिपाठी जी
बेटी-दामाद के साथ घूमने में व्यस्त हैं। कभी दिल्ली तो कभी वृंदावन।

बीकेएस यादव जी के साथ सफेद रसगुल्ले की मिठास और मालपुआ की बात ही निराली थी।

डॉ जगदीश व्यास जी आजकल ओडिसा के आदिवासी इलाके में समाजसेवा में लगे हैं, उनसे बात कर और उनका अनुभव जानकर अत्यंत खुशी हुई। इस उम्र में भी घर से बाहर जाकर आदिवासियों की भलाई का काम करना बहुत प्रेरणादायक है। उनका वहां हमें बुलाने का निमंत्रण बहुत आत्मिक था। कोशिश करता हूं, कुछ समय निकालकर वहां जाऊंगा।

मोहन गांधी जी से बात हुई, मस्त लगे। वैद्यनाथ मिश्र जी से बात हुई, स्वस्थ हैं। मंजू भटनागर जी मुंह के ऑपरेशन के बाद घर आ गई हैं, सुधार की ओर हैं, उनके बेटे आशीष से बात करने से पता चला।

राजन अस्थाना जी ठीक हो रहे हैं, पांव में थोड़ी सी सूजन है। राकेश चंद्रा जी अमेरिका से आए बेटी-दामाद को राजस्थान घुमाने में व्यस्त रहे। भट्ट जी किराए का मकान ढूंढने में लगे हैं। मकान मालिक ने दिसंबर में मकान खाली करने को बोल दिया है, उनका मन है गौड़ में ही रहने का, वैसे उनके बेटे का मकान है यहां। अकेली रहने वाली श्रीमती त्रिशाल स्वस्थ हैं। आर के गोयल जी और भटनागर जी से फोन पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ।

अन्य सभी साथी घर की साफ-सफाई, घर सजाने के लिए फूल-माला खरीदने, दीपक जलाने, पूजा में चीनी के खिलौने वाले हाथी-घोड़ा-खील-बतासा, बादामी की मिठाइयां लाकर लक्ष्मी, गणेश, कुबेर को भोग लगाने में लगे रहे। कुछ अपने नाती-पोते तो कुछ सजी-संवरी पत्नियों के साथ बम, रॉकेट, फुलझड़ी, अनार, खुद जलाकर अपने बचपन का आनन्द ले रहे थे। ये बात और थी कि बम फोड़ने में संकोच कर रहे थे, लेकिन मस्ती खूब कर रहे थे।

पटाखे फूटते हुए देखकर बहुत मजा आ रहा था। कुछ रॉकेट ऊपर जाकर टकराकर नीचे आकर फूट रहे थे। धुंआ और शोर से उत्साह व उमंग को कोई लेना-देना नहीं था। मस्ती और मस्ती ही चारों ओर थी।

यही तो है त्यौहार की खुशी!

नई पीढ़ी पूजा की सजी हुई थाली लेकर मंदिर आ-जा रही थी। पूजा-आराधना देखकर लगा कि त्यौहार पर ही सही अपनी संस्कृति से आत्मिक लगाव अभी भी है।

कुछ लोग कहते फिर रहे थे, इतना शोर मचा कर वायु प्रदूषण कर रहे हैं तो कुछ कह रहे थे कि वाह भाई वाह, आप कल कहेंगे कि दीपक जलाने से ग्लोबल वार्मिंग हो जाएगी।

हमें तो अपना बचपन याद आया कि कैसे हमलोग आना-दो आना के छछूंदर बम, आलू बम, चिट पुटीया, साइकिल की तीली वाले पटाखे, सुतली बम, मिट्टी के बर्तन वाले अनार, गुज्जा, चरखी चलाया और फोड़ा करते थे।

घरों के दरवाजों पर आम के पत्तों के बंदनवार बना कर सजाया करते थे। पूजा के बाद एक दिया तुलसी को, एक दिया हैंड पंप पर, एक दिया कुएं पर, एक दिया घूरे पर, फिर हर दरवाज़े पर दो दिया, एक दिया जानवरों वाले घर में, एक दिया जानवरों के नाद पर, फिर खिड़कियों, मुंडेरों पर रखते थे।

अधिकतर मकान कच्चे खपड़ैल के होते थे तो छत पर दिया जलाना नहीं होता था। हां, एक आध पक्के कमरों की छत पर ज़रूर दीपक की सजावट होती थी। कंडील और दियों से पूरा घर सजाया जाता था, दौड़-दौड़ कर दिए में तेल डाला जाता था, जो बुझ जाते उनको फिर जलाया जाता था, और खील-बतासा-शक्कर वाले हाथी-घोड़ा खाते और पड़ोसियों के यहां प्रसाद बांटा करते थे। वह मौज-मस्ती-धमा-चौकड़ी सालों बाद आज भी ताजी है।

सबसे बड़ी बात होती थी कि घर में और पड़ोस में बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेना जरूरी हुआ करता था।

आज हम सब इतने बड़े हो गए हैं कि एक-दूसरे के घर आते-जाते ही नहीं हैं। हम मान बैठे हैं कि वॉट्सएप, फेसबुक ही सबकुछ है।

चार दिन बचे हैं यार,
खूबसूरत जिंदगी के!
चलो चलते हैं दोस्त के घर,
आस में बैठा है जो, हमारे आप के!

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