जो बीत रहा है वह समय नहीं, जीवन है!
एक बार की बात है। स्वामी रामतीर्थ पहली बार विदेश यात्रा पर निकले थे। वह पानी के जहाज से यात्रा कर रहे थे। उस जहाज में एक 90 वर्षीय बुजुर्ग जर्मन यात्री भी थे। वह जर्मन बुजुर्ग चीनी भाषा सीख रहे थे।
इस उम्र में उन्हें एक नई भाषा सीखते हुए देखकर स्वामी रामतीर्थ को बेहद आश्चर्य हुआ।
चीनी एक कठिन भाषा मानी जाती थी। उसमें कुशलता हासिल करने के लिए कम से कम 10-15 साल का अभ्यास जरूरी था।
स्वामी रामतीर्थ कई दिनों तक उस बुजुर्ग को गौर से देखते रहे। वह नई भाषा सीखने में इस कदर व्यस्त रहते थे कि घंटों नजर उठाकर किसी को देखते भी नहीं थे।
एक दिन रामतीर्थ ने उत्सुकतावश उनसे पूछ ही लिया:
“महाशय, आप इस पकी उम्र में एक नई भाषा सीखने में क्यों अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं? पता नहीं, आप कब इसे सीखेंगे और कब इसका उपयोग कर पाएंगे?”
उनका यह सवाल सुनकर वह जर्मन बुजुर्ग बोले :
“किस उम्र की बात करते हैं आप? मैं काम में इतना व्यस्त रहा हूं कि कभी अपनी उम्र का हिसाब ही नहीं रख पाया। चूंकि अभी सीख ही रहा हूं , इसलिए अब तक बच्चा हूं। जहां तक मेरी मौत का सवाल है, तो वह तो पैदा होने के बाद से ही मेरे सामने खड़ी थी। अगर उसका ही लिहाज रखता रहता तो आज तक मैं कुछ भी नहीं सीख पाया होता!”
बुजुर्ग की सीखने की गहरी लगन से स्वामी रामतीर्थ बहुत प्रभावित हुए। भारत लौटने पर उन्होंने अपने सभी शिष्यों को अपने इस अनूठे अनुभव के बारे में बताया।
उन्होंने कहा:
हर इंसान को जीवन भर कुछ न कुछ सीखते रहना चाहिए। सीखने का उम्र से कोई रिश्ता नहीं है।
(स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् 1873 की दीपावली को पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में हुआ था। उनके पिता पण्डित हीरानन्द गोस्वामी एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। कुछ विद्वानों का मत है कि वह गोस्वामी तुलसीदास के वंशज थे।)