भारत की संस्कृति गतिशील रही है!

भारत चिर काल से एक आध्यात्मिक संस्कृति वाला राष्ट्र रहा है। यह सनातन राष्ट्र के रूप में विख्यात रहा है। इसकी संस्कृति भी इसी कारण सनातन कही जाती रही है।

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। सनातन का अर्थ है कि यह न कभी आरंभ हुई और न ही कभी समाप्त होने वाली है, बल्कि यह चिरस्थायी है, हमेशा बनी रहने वाली है।

भारत की भौगोलिक स्थिति और यहां के निवासियों के बारे में विष्णु पुराण में वर्णन मिलता है:


उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥
इसका भावार्थ है कि समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो क्षेत्र है, उसका नाम भारत है तथा यहां रहने वाले भारतीय हैं।


ऋग्वेद में उल्लेख आता है:
विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जन, 
अर्थात् विश्वामित्र के मंत्र, उनकी प्रार्थनाएं भारत राष्ट्र की रक्षा करती हैं।

ऋग्वेद के अन्य मंत्र में कहा गया है कि भारत सदा से प्रचुर मात्रा में सूर्य के प्रकाश को प्राप्त करने वाला, ऊर्जा और सुख का संपूर्ण भरण करने वाले विभिन्न क्षेत्रों में अग्नि के समान तेजस्विता से परिपूर्ण विद्वानों का निवास क्षेत्र रहा है:
तस्मा अग्निर्भारत: शर्म यंसज्ज्योक्पश्यात् सूर्यमुच्चरन्तम्। 

स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती सम्राट महाराज भरत के नाम पर इस भूभाग का नाम भारत पड़ा।

अग्निपुराण के अनुसार भी शकुंतला पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा:
शकुन्तलायान्तु बली यस्यनाम्ना तु भारता:।

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है:
विश्व भरण-पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई।
अर्थात संपूर्ण विश्व का भरण-पोषण करने वाला भरत कहलाता है।

भारत शब्द के उच्चारण से ही हमारे मन में वैदिक ऋषियों द्वारा दिया गया ज्ञान-विज्ञान और संस्कारों की धारा बहने लगती है।

भारत की संस्कृति आदि काल से वेदों और वैदिक धर्म में अटूट आस्था रखने वालों की भूमि रही है। वेद आध्यात्मिक ज्ञान और भौतिक ज्ञान के मूल स्रोत हैं। जिस तरह से ईश्वर शाश्वत है, उसी तरह से वैदिक ज्ञान भी शाश्वत है क्योंकि वेद ईश्वर की रचना हैं।

भारतीय संस्कृति दान की संस्कृति रही है, भोग की नहीं। प्राचीन भारत में अनेक दानवीरों का वर्णन मिलता है, जैसे: दधीचि, बलि, शिवि, कर्ण।

महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों में दो महत्वपूर्ण बातें कही हैं: परोपकार करना पुण्य है और दु:ख देना पाप है।

महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने जब काशी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की तो उनके मन में यही प्रण था कि इस देश के युवक-युवतियों में भारतीय सनातन मूल्यों का संचार हो। वे कहते थे कि ज्ञानार्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण है चरित्र का निर्माण और चरित्र निर्माण के लिए जरूरी है कि हम सनातन मूल्यों को आत्मसात करें।

विशाल भौगोलिक स्थिति के कारण यहाँ के लोग अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं, अलग-अलग तरह के कपडे़ पहनते हैं, भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं, अलग-अलग भोजन करते हैं, फिर भी उनका स्वभाव एक जैसा होता है।

भारत में अवसर चाहे कोई खुशी का हो या कोई दु:ख का, लोग पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं। यहां के त्यौहार या आयोजन किसी घर या परिवार के लिये सीमित नहीं होते हैं बल्कि पूरा समुदाय खुशियाँ मनाने में शामिल होता है।

भारत की संस्कृति गतिशील रही है। यह मानव-सभ्यता की शुरूआत तक जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है।

संस्कृति किसी भी देश, जाति और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही देश, जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन-मूल्यों आदि का निर्धारण करता है।

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है।

भारतीय संस्कृति समस्त मानव जाति का कल्याण चाहती है। भारतीय संस्कृति में  प्राचीन गौरवशाली मान्यताओं एवं परंपराओं के साथ ही नवीनता का समावेश भी दिखाई देता है। भारतीय संस्कृति विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं का महासंगम है। इसमें सनातन संस्कृति से लेकर आदिवासी, तिब्बत, मंगोल, द्रविड़, हड़प्पाई और यूरोपीय धाराएँ भी समाहित हैं। हड़प्पाकालीन सभ्यता की पंरपराएँ एवं प्रथाएँ आज भी भारतीय संस्कृति में देखने को मिलती हैं। जैसे मातृदेवी की उपासना, पशुपतिनाथ की उपासना आदि ।

भारतीय संस्कृति प्रकृति-मानव-संबंध पर बल देती है। यह मानव, प्रकृति और पर्यावरण के आपसी अटूट संबंधों को लेकर चलती है।

भारतीय उपनिषदों में ईशावास्यमिदंसर्वं आता है। इसका अर्थ है कि जो कुछ भी इस जगत् में है, वह सब ईश्वर का है। इसका मतलब यह भी है कि हमें ईश्वर की दी हुई वस्तुओं पर अपना अधिकार नहीं जमाना चाहिए और न ही दूसरों को उनसे वंचित करना चाहिए।

भारतीय संस्कृति विश्व में सबसे अधिक प्राचीन मानी जाती है। भारतीय संस्कृति को विश्व की अन्य संस्कृतियों की जननी भी माना गया है।

हमारी संस्कृति की शाश्वतता का एक उदाहरण पर्याप्त है कि हम संसार का कल्याण करने वाले भगवान विष्णु को देवशयनी एकादशी (आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी) पर शयन कराते हैं और चार महीने बाद देवोत्थान एकादशी (कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी) पर उनके शयन से उठने की प्रतीक्षा करते हैं। हमारे ईश्वर भी शाश्वत, हमारे पर्व भी शाश्वत और हमारी आराधना भी शाश्वत।

आज आवश्यकता है कि हम अतीत की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजें, सवारें और उसकी मजबूत आधारशिला पर खडे़ होकर अपनी सार्वभौमिक पहचान बनाकर उस पर गर्व करें।

भारत ने भले ही राजनैतिक स्वतंत्रता 1947 में पाई हो, परंतु भारत की सनातन संस्कृति आदि काल से चली आ रही है एवं लाखों वर्ष पुरानी है। भारत को ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में जाना जाता रहा है। भारत की सनातन संस्कृति का लोहा पूरे विश्व ने माना है।


भारत देवभूमि है
यह अर्पण की भूमि है
यह तर्पण की भूमि है
यह समर्पण की भूमि है


पश्चिमी दर्शन की विचारधारा के ठीक विपरीत, भारतीय संस्कृति, व्यक्तिवाद के ऊपर परिवार, समाज, राष्ट्र एवं सृष्टि को महत्व देती है। भारतीय संस्कृति कर्म आधारित है। यह मानवता पर केंद्रित संस्कृति है। यह उत्थान को महत्व देती है।


भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा
इसका भावार्थ है:
भारत की दो प्रमुखताएं हैं: संस्कृत और संस्कृति।
संस्कृत की सूक्तियां, सुभाषित और श्लोक उत्थान के लिए प्रेरित करते हैं।

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