भारत का आदिवासी समाज प्रकृति प्रेमी होता है!
दीपावली का त्यौहार कई दिनों तक चलने वाला त्यौहार है। इसकी विशालता जितनी है, उतनी ही अधिक कहानियां इसे मनाने के पीछे जुड़ी हुई हैं। प्रमुख कहानी वही है, राम के चौदह वर्ष के वनवास से अयोध्या वापस लौटने के समय खुश होकर अयोध्यावासियों द्वारा नगर को दीपों से सजाना, जो कालांतर में दीपावली पर्व बन गया।
देश के अलग-अलग हिस्सों में दीपावली मनाने के तरीकों में भी भिन्नता पाई जाती है। एक तरफ शहरों में जहाँ पटाखों की गूँज सुनाई देती है और बिजली के झालरों की चटक चमक दिखाई देती है, वहीं ग्रामीण अंचल में दियों की मंद-मंद शीतल रौशनी में नहाया और आपसी स्नेह-भाव के उमंग से भरा पूरा गाँव जगमगाता और खिलखिलाता मालूम पड़ता है।
भारत का आदिवासी समाज प्रकृति प्रेमी होता है। वह पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है। उसका दीपावली मनाने का तरीका भी औरों से अलग लगभग प्राकृतिक ही है।
आदिवासी, दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है। इसका अर्थ है: आदिकाल से इस देश में निवास करने वाले। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में आदिवासी यहां की कुल जनसंख्या का 8.6% हैं। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ का उपयोग किया गया है।
भारत के प्रमुख आदिवासी समुदाय हैं :
असुर, उरांव, कोल, खड़िया, गरासिया, गोंड, नायक, पारधी, बिरहोर, बोडो, भील, भूमिज, भिलाला, मुण्डा, सहरिया, संथाल, हल्बा आदि हैं।
आदिवासी मुख्य रूप से ओडिशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड, अंडमान-निकोबार, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय, असम,
नागालैंड में बहुसंख्यक हैं।
और
गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक हैं।
आदिवासियों का अपना धर्म है। ये प्रकृति-पूजक हैं। ये वन, पर्वत, नदियों एवं सूर्य की आराधना करते हैं। यहां कुछ आदिवासी समुदाय का दीपावली मनाने का तरीका लिख रहे हैं।
गुजरात के आदिवासी भरूच समाज के लोग अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों को संजो कर रखे हैं। ये लोग अपनी दीपावली 15 दिनों तक मनाते हैं। इनके लिए दीपावली अच्छे स्वास्थ्य की कामना करने का त्यौहार होता है।
दीपावली मनाने के लिए यहाँ अलग-अलग वृक्षों की लकड़ियाँ इकठ्ठा की जाती हैं। फिर इनको जलाया जाता है। माना जाता है कि इन लकड़ियों से निकलने वाला धुआँ सभी लोगों के लिए धन और अच्छा स्वास्थ्य लाएगा। इस त्यौहार में हर रात को गाँव की युवा पीढ़ी पारंपरिक नृत्य और संगीत का प्रदर्शन करती है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में दीपावली का त्यौहार तीन दिन का होता है। इसको दियारी कहा जाता है। इस मौके पर बस्तर में फसल और हिंदू देवता नारायण का ब्याह रचाया जाता है। ब्याह के बाद सभी घरों के भंडारघर में अनाज भरा जाता है।
दीपावली के पहले दिन गाँव के जिन लोगों के पास पशु होते हैं, उन्हें बस्तरिया बीयर और चरवाहों को धान, फूलों की माला और खिचड़ी देकर सम्मानित किया जाता है।
बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में लोग इस अवसर पर गोटों पूजा करते हैं। माना जाता है गोटों पूजा पशुओं के स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा के लिए अच्छी होती है।
महाराष्ट्र के ठाकर आदिवासी चिबरा के सूखे फल को इस्तेमाल करके लैंप बनाते हैं। इस लैंप को सूखे उपले के ऊपर रखा जाता है। इसी समय खासतौर से अनाज को बांस से बनी हुई टोकरियों में रखा जाता है जिन्हें वहां के स्थानीय लोग कांगा कहते हैं। कांगा में रखे हुए अनाज को दीपावली वाले दिन पूजा जाता है। इस दिन ठाकर क्षेत्र में जलसा जैसा माहौल रहता है। तरह-तरह के पारंपरिक नृत्य और संगीत की प्रस्तुति होती है। ठाकर समुदाय खासतौर से ढोल बजाकर खुशियाँ मनाता है।
उत्तराखंड के जौनसार-बावर आदिवासी क्षेत्र में दीपावली पूरे देश की दीपावली के एक महीने बाद मनाई जाती है। जौनसार-बावर इलाके में दीपावली को बूधी दिवाली नाम से जाना जाता है। यह नए चाँद की रात को मनाई जाती है। दो दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार के एक रात पहले गाँव के सभी लोग पूरी रात जागकर स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। पूजा के बाद देवदार के पेड़ों की लकड़ियों को इकठ्ठा करके जलाते हैं। इसको स्थानीय भाषा में वियती बोला जाता है। सभी लोग रातभर इसके आसपास नृत्य करते हैं और पारंपरिक लोकगीत गाते हैं।
अगली सुबह हर घर से एक या दो व्यक्ति गाँव के सभी घरों में चाय और चिवड़ा का नाश्ता करने जाते हैं। इसके अलावा हर परिवार द्वारा गाँव के स्थानीय मंदिर में अखरोट का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। यह चढ़ावा शाम को मंदिर आने वाले श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।
जौनसार-बावर की दियाई में धान और मंडुआ की अच्छी फसल की कामना की जाती है जिसके लिए खासतौर से खेतों में रौशनी की जाती है।
ओडिशा का आदिवासी समाज दीपावली, अपने पूर्वजों को नमन करके मनाता है। इसको कौंरिया काठी के नाम से जाना जाता है। कौंरिया काठी पर खासतौर से जूट की टहनियों को जलाया जाता है। माना जाता है कि ऐसा करना आदिवासी समाज में पूर्वजों को न्यौता देने जैसा होता है। इससे उन्हें अपने पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में दीपावली शांत और सौम्य तरीके से मनाई जाती है। झारखंड में इस त्यौहार को सोहराई के नाम से जाना जाता है। सोहराई के मौके पर झारखंड के इन इलाकों में दैनिक जीवन से जुड़ी चीजों की पूजा की जाती है। धान की फसल और पशुओं को पूजा जाता है। आदिवासी लोगों के जीवन में फसल और पशुओं का बहुत बड़ा योगदान होता है।
झारखंड के आदिवासी समुदाय की औरतें त्यौहार से पहले अपने घरों की मिट्टी से पुताई करती हैं। पुताई के बाद दीवारों पर तरह-तरह की चित्रकारी करती हैं। यह चित्रकारी आदिवासी समाज की परंपरा और संस्कृति से जुड़ी होती है। इसके अलावा घर के पालतू जानवरों की भी पूजा की जाती है।
गरासिया समुदाय में दीपावली पर्व का विशेष महत्व है। पर्व की तैयारी कुछ दिन पहले से शुरू होती है। धनतेरस से महिलाएं और युवतियां दीपावली पर गांव में घेरा बनाकर दीपावली के पारंपरिक गीत आदिवासी भाषा में गाती हैं। पारंपरिक वेशभूषा में दीपावली के गीतों को सुनने के लिए काफी लोग इकट्ठा होते हैं।
गरासिया समाज धनतेरस पर गायों या अन्य पशुओं को नदी या जलाशय पर नहलाता है। घर पर लाकर माता या बहन उनकी तिलक लगाकर पूजा करती हैं। दीपावली की रात में घर पर वरिष्ठ जन घर में दूध, दही, कुमकुम आदि मिलाकर पशुओं पर लगाते हैं। इस दिन मेरिया प्रज्वलित किया जाता है।
मेरिया की परंपरा काफी पुरानी है। दीपावली के दिन लौकी का दिया लगाकर पूजा-पाठ किया जाता है। घर का मुखिया इस विशेष दीपक को पकड़कर प्रार्थना करता है कि गाय माता और भैंसों की आंखें हमेशा खुली रहें, चोरों की आंखें बंद हों और वर्ष शुभ हो।
झारखंड में आदिवासी अपने अंदाज में तीन दिनों की दीपावली मनाते हैं। इसकी दीपावली पूरी तरह से प्राकृतिक होती है। ये करंज के तेल से ही दीये जलाते हैं। पटाखे फोड़ने की रस्म यहां नहीं है। यहां पशुधन की पूजा की परंपरा है। यहां बाजारू मिठाई की जगह घरेलू पकवान का महत्व होता है।
प्रकृति-पूजक आदिवासी समाज की परंपराएं सनातन संस्कृति का हिस्सा हैं। करंज के तेल के दिए इसलिए जलाए जाते हैं ताकि बरसात के बाद उत्पन्न होने वाले तमाम कीड़े इसके धुएं और लौ से नष्ट हो जाएं। पर्यावरण पूरी तरह से शुद्ध हो जाए। करंज का तेल आयुर्वेदिक गुणों से भरपूर होता है। इससे कई तरह की दवाएं भी बनती हैं। यह सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है। वे प्रदूषण फैलाने वाली किसी वस्तु का उपयोग नहीं करते हैं।
आदिवासी समुदाय दीपावली के एक दिन पूर्व यम को दीप अर्पित कर पर्व प्रारंभ करता है। दीपावली पर बहुत से लोग उपवास रखकर शाम में दिए जलाते हैं। मां लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं। अगले दिन आदिवासी समाज के लोग नहा-धोकर गाय-बैल व अन्य मवेशियों को नहलाकर उन्हें सिंदूर लगाते हैं। उनकी पूजा करते हैं। उन्हें पकवान खिलाते हैं। इसके बाद उनकी दीपावली संपन्न होती है।
झारखंड के कई गांवों में पशुओं के सम्मान में डाइर मेला का भी आयोजन किया जाता है। इस मौके पर आदिवासी समाज के लोग अपने पशुओं के साथ एक जगह इकठ्ठा होते हैं और वहां नाचते गाते हैं।
गोंड समुदाय का आदिवासी समाज भी आदिकाल से दीपावली धूम-धाम से मनाता रहा है। सबसे बड़ी बात यह कि इस समाज के लोग भी करंज तेल से ही दिया जलाते हैं। यह पर्यावरण के लिए अनुकूल होता है।
बस्तर की आदिवासी परम्पराएं कई रोचकता समेटे हुए हैं। पूरा देश जब दीपावली मना रहा होता है, तब बस्तर के ग्रामीण इलाकों में इसका जिक्र तक नहीं होता है। यहां के रहने वाले आदिवासियों में इस त्यौहार को मनाने का कोई प्रचलन नहीं है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदाय ने जरुर वक्त के साथ दीपावली मनाना शुरू कर दिया है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासियों की मान्यता और परम्पराएं अभी भी पुरानी ही हैं।
बस्तर में दीपावली में पालतू मवेशियों को नए फसल की खिचड़ी खिलाया जाता है। इसे दियारी कहा जाता है। दरअसल भगवान राम के वापस आने और समुद्र मंथन में देवी लक्ष्मी के प्रकट होने की तिथि के दिन दीपावली मनाने की परंपरा है। इस परंपरा का निर्वहन राज परिवार करता है। इसीलिए बस्तर के आदिवासी दीपावली को राजा दियारी कहते हैं।
राजा दियारी के दिन राजा अपने राजमहल से पैदल निकलकर शहर के बाजार का चक्कर लगाते हैं। स्थानीय आदिवासियों के हाथों से बने दिये, टोरा का तेल, कपास, फूल, लाई, चिवड़ा, गुड़िया खाजा जैसे कई सामानों की खरीदी करते हैं। इन चीज़ों को आदिवासी अपने हाथों से तैयार करते हैं। आदिवासी अपने खेतों में फसल उगाकर जो सामान तैयार करते हैं वह भी बेचने के लिए बाजार में आते हैं। राजा दो से तीन घंटे पूरे बाजार में घूमकर वापस राजमहल में जाते हैं और दीपावली का त्यौहार मनाते हैं।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासी समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला दियारी महोत्सव लगभग डेढ़ महीने तक चलता है, जो धान की कटाई का प्रतीक है। यह ग्रामीणों द्वारा नई फसल घर लाने के बाद समृद्धि के लिए अपनी कुल देवी से प्रार्थना करने के साथ शुरू होता है। अनुष्ठानों में धान को बांस की टोकरी में रखना, मवेशियों को नहलाना और उन्हें खिचड़ी खिलाना शामिल है। तीसरे दिन सामुदायिक भोज के लिए निर्धारित किया जाता है जिसे “बासी” तिहार कहा जाता है। इस उत्सव में पशुधन पर जोर दिया जाता है। इसमें पुरुष गायों को मोर के पंखों से सजाते हैं और महिलाएँ नए चावल और कंद से खिचड़ी तैयार करती हैं।
दंतेवाड़ा के कोया आदिवासी समाज में दीपावली मनाने की कोई संस्कृति नहीं है। अंदर के इलाकों में तो बहुत से लोगों को इसकी जानकारी तक नहीं रहती है। नवंबर के महीने में जब फसल पकने लगती है तब एक त्यौहार मनाया जाता है। इसे गोंडी बोली में दीवाड़ कहते हैं, हल्बी में इसी का नाम दियारी है।
इस त्यौहार में ग्रामीण अपने ग्राम देवता को पूजते हैं। हर गांव के देवता भी अलग होते हैं। दीवाड़ दो दिनों तक मनाया जाता है।दीवाड़ में बस्तर संभाग में रहने वाले आदिवासियों के सभी समुदाय जैसे मुरिया, हल्बा, दोरला, माड़िया, भतरा शामिल होते हैं।
इसमें गांव के देवता को पकी फसल का चावल, कुम्हड़ा(कद्दू), सेमी का फल अर्पित किया जाता है। इसी दौरान देवता के पास ग्रामीण दिया जलाते हैं। इसके बाद दिसंबर के आखिर और जनवरी के पहले हफ्ते के आस-पास गाड़ी पंडुम त्यौहार मनाया जाता है। तब फसलों को काटा जाता है। इसमें श्रध्दा के अनुरूप ग्रामीण फसल का कुछ हिस्सा देवता को चढ़ाते हैं। इसे पट्टी देना कहा जाता है।
मध्य प्रदेश में कई आदिवासी गांव ऐसे हैं जहां खेती किसानी के कामकाज खत्म होने के बाद दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार दो माह तक चलता है। इसके लिए किसी एक तारीख का निर्धारण नहीं होता है बल्कि गांव के मुखिया यह तय करते हैं कि दीपावली का पर्व कब मनाया जाएगा।
इसमें पशुधन पूजा को विशेष महत्व दिया जाता है। इस गांव के आदिवासी समाज के लोग दीपावली पर पशुधन-पूजा को महत्व देते हैं। इस पूजन में मिट्टी से बने घोड़े, ढावे और माझली को आदिवासी लोग कुम्हारों से खरीदते हैं। इन खिलौनों को पशुओं के बांधने की जगह पर गाय, भैंस, बैल के सामने रखकर पूजा की जाती है। इस दौरान पशुओं को भी खूब सजाया जाता है। घर में पकवान बनाए जाते हैं और कुलदेवी और इष्ट देवताओं को उनका भोग लगाया जाता है। लोग नाचते-गाते हुए दीपावली मनाते हैं।
थारू जनजाति दीपावली पर शोक मनाती है। थारू शब्द थेरवाद बौद्ध धर्म से लिया गया है। थारू जनजातियाँ उत्तरी भारत और दक्षिणी नेपाल में पाई जाती हैं।
कुमाऊं क्षेत्र के थारू समुदाय ने दीपावली के अपने उत्सव को शोक के दिन से बदलकर एक जीवंत उत्सव में बदल दिया है। पहले, वे इस दिन को शारदीय अमावस्या के रूप में मनाते थे। इसमें परिवार के मृतक सदस्यों को “रोटी” देते थे और अंतिम संस्कार करते थे।
समय के साथ, परंपराएँ विकसित हुईं और अब थारू लोग उत्साह के साथ दीपावली मनाते हैं, मिठाई का आनंद लेते हैं और पटाखे फोड़ते हैं।
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के ट्रांस-गिरी क्षेत्र में रहने वाले हट्टी जनजाति के लोग सप्ताह भर चलने वाला आदिवासी त्यौहार बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। यह त्यौहार मौंस (अमावस्या) के दिन अनुष्ठानों के साथ शुरू होता है। लोग पारंपरिक व्यंजन जैसे बडोली, सिदकू, मालपुड़ा, पटंडे और विभिन्न प्रकार के व्यंजन तैयार करते हैं। परंपरा का पालन करते हुए, ग्रामीण कुलदेवता के मंदिर जाते हैं, एक औपचारिक अग्नि जलाते हैं और भुने हुए अनाज की आहुति देकर ‘हवन’ करते हैं। पूरे त्यौहार के दौरान, रासा, नाटी और स्वांग सहित विभिन्न लोक परंपराएँ निभाई जाती हैं। विवाहित महिलाएँ उत्सव में शामिल होने के लिए अपने माता-पिता के घर लौटती हैं।
वारली और बंजारा दोनों ही समुदाय अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को बहुत महत्व देते हैं, भले ही मुख्यधारा की संस्कृति का प्रभाव उनके दीपावली उत्सव को नया रूप दे रहा हो। यह त्यौहार चावल, रागी और चवली जैसी सब्जियों की कटाई से बहुत जुड़ा हुआ है ।
संथाल समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला सोहराई पोरब दीपावली के बाद मनाया जाता है। इसमें मवेशियों को सम्मानित किया जाता है। यह उत्सव पाँच दिनों तक चलता है। इसकी शुरुआत ग्रामीण अपने घरों की सफ़ाई और प्राकृतिक रंगों से रंगाई से करते हैं। पहले दिन गायों को इकट्ठा किया जाता है और दियों, गीतों और सजावट के साथ उनकी पूजा की जाती है। गायों को तेल और सिंदूर से सजाया जाता है। दूसरे दिन विवाहित बेटियाँ अपने माता-पिता से मिलने जाती हैं, जबकि तीसरे दिन जानवरों को आज़ादी से घूमने की अनुमति दी जाती है। अंतिम दिन गायन और नृत्य होता है। यह त्यौहार मवेशियों के साथ उनके गहरे बंधन को मजबूत करता है। सोहराई पोरब आदिवासी गांवों में मवेशियों की वापसी का जश्न मनाता है।
दक्षिणी ओडिशा में परजा, साओरा और गदाबा जनजातियों द्वारा मनाया जाने वाला आदिवासी त्यौहार दियाली तीन दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में मवेशियों की पूजा की जाती है। पहले दिन, परिवार अपनी गायों को नहलाते हैं और उन्हें सजावटी जूट की रस्सियों से सजाते हैं, चावल चढ़ाते हैं।
दूसरे दिन गोशाला की सफाई और लाल मिट्टी और चावल के आटे से बनी डिजाइनों से अनुष्ठान करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, इसके बाद बांस के बर्तन में गाय को खिचड़ी खिलाई जाती है; बचे हुए हिस्से को प्रसाद माना जाता है।
अंतिम दिन, चरवाहा आकर्षण का केंद्र बन जाता है क्योंकि वह सजावटी रस्सी इकट्ठा करता है और घर-घर जाकर गाता और नाचता है, घर-घर जाकर वह चावल और खाद्य पदार्थ दान करते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में, स्थानीय लोग हर घर में छोटे-छोटे पत्थरों पर देवदार और चीड़ की लकड़ी के टुकड़े जलाते हैं, जो शांति और समृद्धि के लिए उनकी प्रार्थना का प्रतीक होती है।
पूर्व आदिलाबाद जिले के आदिवासी लोग दीपावली से करीब एक सप्ताह पहले डंडारी-गुस्साडी उत्सव मनाते हैं। उत्सव की शुरुआत पद्मलपुरी खाको मंदिर की यात्रा से होती है, जहाँ गोदावरी नदी में प्रसाद चढ़ाया जाता है। सप्ताह भर चलने वाला यह उत्सव साक्षे अकाडी अनुष्ठान से शुरू होता है और अमावस्या के दिन देवडी समारोह के साथ समाप्त होता है। नर्तक, मोर के पंखों से बनी पारंपरिक गुस्साडी टोपी पहने हुए, डंडारी मंडली बनाते हैं। इस उत्सव में जीवंत संगीत और अनोखे वाद्ययंत्रों का प्रदर्शन किया जाता है, जो आदिवासी समुदायों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करते हैं।
नेत्रंग और सागबारा जैसे क्षेत्रों के आदिवासी अपने देवताओं को शराब और अनाज चढ़ाते हैं और अपने मवेशियों की पूजा करते हैं, जो खेती और जीविका के लिए ज़रूरी हैं। इसके अतिरिक्त, वे पेड़ों और जल स्रोतों का सम्मान करते हैं, पृथ्वी और आकाश को अपने प्राथमिक देवता मानते हैं। त्यौहार का समापन उनके गांवों से बुराई को दूर करने के लिए एक धार्मिक जुलूस के साथ होता है।
कोल जनजातीय समुदाय में दीपावली से पहले बिरहियान लोक उत्सव मनाया जाता है। इसमें माता गौरा को प्रसन्न कर घरों में खुशहाली लाने के लिए पूजन किया जाता है ताकि उनके खेतों में अच्छी फसल हो और घरों में व्रतधारी कुंवारी युवतियों पर माता पार्वती की कृपा हो जिससे उनको मनवांछित वर की प्राप्ति हो।
हम कह सकते हैं:
(अ) दीपावली केवल रोशनी का त्यौहार नहीं है। यह कई लोगों के लिए, विशेषकर कमज़ोर समाज के लिए आशा की किरण है।
(ब) दीपावली हमारी सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देने और आपसी एकता को बढ़ावा देने में सहायता करने वाला त्यौहार है।
(स) दीपावली हमारे चारों ओर से अंधकार को हटाकर जब वहां प्रकाश भर देती है, तब दुनिया भर के लाखों लोग इसे देखकर प्रेरित होते हैं कि वे भी अपनी सहायता से कई लोगों का जीवन उज्ज्वल कर सकते हैं।