सूर्य जीवन के प्रत्यक्ष देवता हैं!
सूर्य कश्यप ऋषि और अदिति के पुत्र हैं। सूर्य को वेदों में जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता-धर्ता मानते थे।
भारत की सनातन संस्कृति में सूर्य को ऊर्जा का अक्षय स्रोत माना जाता है। छठ पूजा सूर्य की पूजा का ही व्रत है। यह पर्व दीपावली के छह दिन बाद मनाया जाता है।
इस पर्व को चार दिन तक मनाया जाता है। इन चार दिनों में उगते और डूबते सूर्य को भावपूर्ण अर्ध्य दिया जाता है। इस पर्व में मंत्रोच्चार नहीं होता है। यहां केवल लोक-गीतों की गूंज सुनायी देती है। इस त्यौहार में कोई ऊंच-नीच नहीं होता है, यहां कोई भेद-भाव नहीं होता है, यहां सिर्फ स्वस्थ जीवन, सुसंतान की कामना और लोकमंगल की भावना रहती है। सभी गीत छठ मैया को समर्पित रहते हैं। लोक परंपरा की मानें तो छठ पर्व में सूर्य की उपासना करने से छठ माई प्रसन्न होती हैं और मन की हर कामना पूर्ण करती हैं।
लोकमानस में इस पर्व से सम्बंधित कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार, इस पर्व की शुरुआत महाभारत काल में कर्ण ने की थी। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। आज भी छठ पर्व के दौरान सूर्यदेव को अर्घ्य देने की वही पद्धति प्रचलित है।
अन्य कथा के अनुसार, श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब भी इस दिन सूर्य की उपासना कर कुष्ठ रोग से मुक्त हुए थे।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, इस व्रत के फलस्वरूप च्वयन मुनि की पत्नी सुकन्या ने अपने जराजीर्ण पति को दुबारा यौवन दिलाया था।
कहा जाता है कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भी छठ व्रत से अर्जित तप के बल पर अपने पतियों को उनकी खोयी प्रतिष्ठा वापस दिलायी थी।
इस पर्व से जुड़ी एक प्रमुख पौराणिक कथा है। उसके अनुसार प्राचीन काल में प्रियंवद नाम के एक शूरवीर व प्रजावत्सल राजा थे। वह संतान न होने से मन ही मन बहुत दु:खी रहते थे। महर्षि कश्यप द्वारा कराये गये पुत्रेष्टि यज्ञ से उनकी पत्नी मालिनी को पुत्र तो हुआ परंतु मृत। शोकाकुल राजा प्रियंवद पुत्र की मृत देह से साथ जब खुद प्राण त्यागने लगे तभी वहां एक देवकन्या प्रगट हुई और उसने उनसे कहा कि सृष्टि की मूल तत्वों के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। तुम सूर्यदेव के साथ मेरा पूजन करो, इससे तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी।
सूर्यदेव और देवी षष्ठी के व्रत पूजन से प्रियवंद को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
लोकमानस में मान्यता यहां तक है कि लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने भी उपवास रखकर सूर्यदेव की आराधना की थी।
छठ पर्व स्वच्छता, समता और सादगी का त्यौहार है। पहले यह त्यौहार बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश और नेपाल की तराई वाले क्षेत्र में मनाया जाता था। आजकल यह विश्वव्यापी है।
यह त्यौहार नदी, तालाब, जलाशय की घाटों पर मनाया जाता है। बड़ी-बड़ी सोसाइटी में स्विमिंग पूल में जल भर कर, अथवा छोटी जगहों पर गड्ढे खोदकर उसमें जल भरकर उसके किनारे एकत्र होकर मनाया जाता है।
छठ में चढ़ाए जाने वाले प्रसाद ठेकुआ के लिए गेहूं धोकर सुखाया जाता है। ठेकुआ बनाने के लिए बाजार से खरीदा आटा इस्तेमाल नहीं किया जाता है। धुले गेहूं को पीसने के लिए आटा चक्कियों की भी विशेष सफाई की जाती है। यदि प्रसाद सामग्री रसोई में बनानी हो, तो रसोई में बिना स्नान प्रवेश वर्जित रहता है। पूजा गृह में ही मिट्टी के चूल्हे का बंदोबस्त किया जाता है, जिसमें सूखी लकड़ियां जलाकर पूजा के लिए खास बर्तनों में प्रसाद बनाने की परम्परा है।
सफाई और शुद्धता में कोई त्रुटि न हो, व्रती इसका पूरा ध्यान रखते हैं। स्वच्छता का संस्कार गढ़ने के साथ यह लोकपर्व अद्भुत सामाजिक एकता का भी संदेश देता है। सूर्य देव को बांस के बने जिस सूप और दउरी या डाला में प्रसाद अर्पित किया जाता है, वह भी नया ही लाया जाता है।
इस पर्व के लिए न भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की, और न ही पंडित-पुरोहित की। चाहिए होता है बस, बांस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतन, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीत।
इस व्रत का पहला दिन नहाय खाय का होता है। इस बार नहाय खाय 5 नवंबर मंगलवार को है। इस दिन व्रती गंगा में स्नान करके लौकी की बिना लहसुन-प्याज की सब्जी और अरवा चावल या कद्दू-भात का भोजन दिनभर में केवल एक बार करेंगे। घर के अन्य सदस्य भी वही प्रसाद खायेंगे।
दूसरा दिन खरना का है। खरना 6 नवंबर बुधवार को है। व्रती दिन भर निर्जला उपवास रखेंगे। शाम को पूजा के बाद प्रसाद के रूप में खीर, रोटी और फल खाएंगे।
तीसरा दिन संध्या अर्घ्य का है। यह 7 नवंबर बृहस्पतिवार को है। इस दिन, व्रती सूर्यास्त के समय नदी या तालाब के किनारे जाकर सूर्य देव को अर्घ्य देंगे। यह छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है।
चौथा दिन प्रातःकालीन अर्घ्य का होता है। यह 8 नवंबर शुक्रवार को है। इस दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा। इसके बाद व्रती अपना व्रत तोड़ेंगे और प्रसाद बांटकर खुद ग्रहण करेंगे।
मान्यता है कि छठ पर्व के दिन एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। इस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र होती हैं तथा सूर्योदय और सूर्यास्त के समय इन किरणों की सघनता बढ़ जाती है। जल में खड़े होकर या नदी किनारे अर्घ्य देने की परम्परा के पीछे इन किरणों के दुष्प्रभाव से बचना एक प्रमुख कारण हो सकता है।
इस पर्व के दौरान एक लोकगीत प्रायः हर जगह गाया जाता है:
पहिले पहिल हम कईनी, छठी मईया व्रत तोहार।
करिहा क्षमा छठी मईया, भूल-चूक गलती हमार।
सब के बलकवा के दिहा, छठी मईया ममता-दुलार।
लिहिएं अरग हे मईया, दिहीं आशीष हजार।
इस गीत में व्रती छठ माता से कहती है कि वह पहली बार उनका व्रत कर रही है, कोई भूल हो तो मां क्षमा करना। हे छठी मईया, बच्चों को आपका स्नेह मिलता रहे। सबका सुख-संसार बना रहे। हे छठी मईया, आपके प्रति हमारी अपार भक्ति और श्रद्घा है। हे माता, हमारा अर्घ्य स्वीकार करें और हमें अपना आशीष प्रदान करें ।